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Friday, 15 January 2021

हाँ दुर्योधन हु मैं। ha duryodhan hu mai

    मैं वहीं दुर्योधन हु जो अपने हक के लिए लड़ा था।।

सर्वस्व अपना गवाँ कर युद्ध भूमि में खड़ा था ।
मैं वहीं दुर्योधन हु जो अपने हक के लिए लड़ा था।।

बड़े भाई को राज न देकर 
छोटे को पद भार दिया ।
जब देनी ही नहीं थी मुझे सत्ता,
तो मेरे पिता से उनके बड़े पुत्र को 
राज देने की बात क्यो स्वीकार किया।।

 जब आया वचन पूर्ण करने का समय तो तुम युधिष्ठिर की तरफ सट गए ।
देख थोड़ी योग्यता तो पल भर में ही पलट गए ।।

 वेद पाठ करते देख एक शूद्र पुत्र को
तुम उसके मुख में पिघला स्वर्ण डाल दिये।
और जब मैंने रंगभूमि में एक शूद्र को उसके कौशल का सम्मान दिया तब उसकी जाती बता उसको टाल दिए।।

 अरे बताओ मुझे कैसे बनते युधिष्ठिर एक कुशल राजा जब उनका मन इतना कड़ा था
मुझमे जाती का भेद नही था ,
मैं राजा योग्य था इसीलिए जिद पर अड़ा था 
मैं वही दुर्योधन हु जो अपने हक के लिए लड़ा था।।



तब कृष्ण ने भीम को क्यो नही ज्ञान दिया ।
जब इंद्र प्रस्त में बुलाकर अतिथि का अपमान हुआ ।।
 कैसे चुप थे धर्म राज जब मेरे पिता को अंधा कहा गया।
था मुझमे भी क्षत्रिय का पौरुष पिता का अपमान न सहा गया।।

अंधे का पुत्र कह उस समय ही उसने युद्ध को ललकारा था ।
क्षत्रिय रक्त ने मुझे प्रतिशोध के लिए पुकारा था ।।

उस सभा मे तो  द्रोण और भिष्म जैसे धर्म के साथी थे ।
क्यों देते हो दोष हमारा युधिष्ठिर खुद भी तो जुए के आदि थे ।।

 पास खेलते हुए उसे नहीं था धर्म का ध्यान।
यदि वो धर्मराज था तो क्या द्रोपदी को जुए में वास्तु समझ उसने दिया स्त्री को सम्मान।।

माना द्रोपती का चीरहरण हमारा अक्षम्य भूल था।
क्योंकि हमें अपने अपमान वस ये याद ही न रहा की उनका और मेरा एक ही कुल था।।
 
जब सारी संपत्ति हार गए फिर क्यों कुछ मांगने आये थे
वो मेरी मर्जी थी मैं पांच गावँ देता या नहीं ,
पर वो संदेश स्वयं कृष्ण क्यों लेके आये थे।

भागीदार तो पांडव भी थे उस सभा मे हुए अपराध का फिर क्यों इतिहास में सारा दोष मुझपे मढ़ा था।
हाँ मैं वहीं दुर्योधन हु जो अपने हक के लिए लड़ा था ।।





 कौन नही था अधर्मी जरा मुझे बताना ।
अपनी ही पत्नी पर दाव लगाना
 और फिर धर्म राज कहलाना 
ये क्या है पहेली जरा हमे समझना।।
 
मैंने द्रौपदी का चीरहरण किया तो पापी सुनना सहता हु।
किन्तु मेरे शूरवीरों को छल से मारकर पांडव भी अधर्मी हुए ये कहता हूं।।

सुयोधन होकर भी दुर्योधन बनकर रहता हूं ।
रणभूमि में छल करते है उन कृष्ण को 
मैं छलिया कहता हूं ।।

 रंकुबरों को अपने दल में लेकर मैं पस्त था ।
पर अपनो के ही गद्दारी से मैं त्रस्त था।

 अगर भीष्म पितामह ने अपने मृत्यु का भेद पांडवों को बताया न होता ।
तो शिखंडीनि को सामने खड़ा कर अर्जून उन्हें तीरों के सैया पर लिटाया न होता।।
 
सेनापति पूरे सेना का पिता होता है ये विचार यदि गुरु द्रोण को आया होता ।
तो दृषड्युम कभी भी अपने जन्म का लक्ष्य न पाया होता ।।

 जिसकी मित्रता और कौशल पर मैन खुद से ज्यादा भरोसा किया।
उसी मित्र कर्ण ने मुझे धोखा दिया।।
 यदि वो अपनी माता को केवल अर्जुन को मारने का वचन न देता ।
तो अकेले कर्ण चारो भाइयों को मार देता 
और उन्हें मृत देख अर्जुन स्तबधित मारा जाता।।

मैं अगर इतना ही दुष्ट और अधर्मी था 
तो युद्ध भूमि में अर्जुन ने मेरे वचन याद दिलाकर क्यों अपने काल रूपी पांचो बाड मांगा था।
अरे सबने छल किया था
सबने युद्ध नीतियों को तोड़ा था 
तब  जाके मैं हारा था।।

अभिमन्यु जब मारा गया तो कहा कि हत्या  ये इनकी रीति थी।
और निहत्थे मित्र कर्ण को मारा वो कहा कि ये इसकी नियति थी  ।।

सभी थे अधर्मी कोई न अछूता था बस बातें इनकी मीठी थी ।
और संसार मे मुझे दुष्ट सिद्ध करना ही इनकी राजनीति थी  ।।

 जांघो को छोड़ पूरा शरीर मेरा लोहा से भी ज्यादा कड़ा था 
किन्तु युद्ध नीति के विरुद्ध जाके भीम ने जांघो पर ही प्रहार मारा था।।
 सर्वस्व अपना गवाँ कर भी युद्ध भूमि में खड़ा था ।
मैं वहीं दुर्योधन हु जो अपने हक के लिए लड़ा था।।

          -  प्रदीप ओझा

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