वामन अवतार की कथा
श्री हरी यानि भगवन विष्णु के पाँचवे रुप है, भगवान वामन। श्री हरी जिसपे एक बार कृपा कर देते है वो धन धान्य हो जाता है उन्हीं के कृपा से

जन्म
'स्वामी, मेरे
पुत्र मारे-मारे
फिरते हैं।' देवमाता अदिति अत्यन्त दुखी
थीं। अपने पति
महर्षि कश्यप से
उन्होंने प्रार्थना की। महर्षि तो
एक ही उपाय
जानते हैं- भगवान
की शरण, उन
सर्वात्मा की आराधना। अदिति
ने फाल्गुन के
शुक्ल पक्ष में
बारह दिन पयोव्रत करके
भगवान की आराधना
की। प्रभु प्रकट
हुए। अदिति को
वरदान मिला। उन्हीं
के गर्भ से
भगवान प्रकट हुए।
शंख, चक्र, गदा,
पद्मधारी चतुर्भुज पुरुष अदिति के
गर्भ से जब
प्रकट हुए, तत्काल
वामन ब्रह्मचारी बन
गये। महर्षि कश्यप
ने ऋषियों के
साथ उनका उपनयन संस्कार सम्पन्न किया।
भगवान वामन पिता
से आज्ञा लेकर
बलि के यहाँ
चले। नर्मदा के
उत्तर-तट पर
असुरेन्द्र बलि अश्वमेध-यज्ञ
में दीक्षित थे।
यह उनका अन्तिम
अश्वमेध था।
तीन पद भूमि
छत्र,
पलाश, दण्ड तथा
कमण्डलु लिये, जटाधारी, अग्नि
के समान तेजस्वी वामन
ब्रह्मचारी वहाँ पधारे। बलि,
शुक्राचार्य, ऋषिगण, सभी उस
तेज से
अभिभूत अपनी अग्नियों के
साथ उठ खड़े
हुए। बलि ने
उनके चरण धोये,
पूजन किया और
प्रार्थना की, कि जो
भी इच्छा हो,
वे माँग लें।
'मुझे अपने पैरों से तीन पद भूमि चाहिये!' बलि के कुल की शूरता, उदारता आदि की प्रशंसा करके वामन ने माँगा। बलि ने बहुत आग्रह किया कि और कुछ माँगा जाय; पर वामन ने जो माँगना था, वही माँगा था।
'ये साक्षात विष्णु हैं!' आचार्य शुक्र ने सावधान किया। समझाया कि इनके छल में आने से सर्वस्व चला जायगा।
'ये कोई हों, प्रह्लाद का पौत्र देने को कहकर अस्वीकार नहीं करेगा!' बलि स्थिर रहे। आचार्य ने ऐश्वर्य-नाश का शाप दे दिया। बलि ने भूमिदान का संकल्प किया और वामन विराट हो गये। एक पद में पृथ्वी, एक में स्वर्गादि लोक तथा शरीर से समस्त नभ व्याप्त कर लिया उन्होंने। उनका वाम पद ब्रह्मलोक से ऊपर तक गया। उसके अंगुष्ठ-नख से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट गया। ब्रह्मद्रव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोया और चरणोदक के साथ उस ब्रह्मद्रव को अपने कमण्डलु में ले लिया। वही ब्रह्मद्रव गंगा जी बना।
'तीसरा पद रखने को स्थान कहाँ है?' भगवान ने बलि को नरक का भय दिखाया। संकल्प करके दान न करने पर तो नरक होगा।
'इसे मेरे मस्तक पर रख ले!' बलि ने मस्तक झुकाया। प्रभु ने वहाँ चरण रखा। बलि गरुड़ द्वारा बाँध लिये गये।
'तुम अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनोगे! तब तक सुतल में निवास करो। मैं नित्य तुम्हारे द्वार पर गदापाणि उपस्थित रहूँगा।' दयामय द्रवित हुए। प्रह्लाद के साथ बलि सब असुरों को लेकर स्वर्गाधिक ऐश्वर्यसम्पन्न सुतल लोक में पधारे। शुक्राचार्य ने भगवान के आदेश से यज्ञ पूरा किया।
महेन्द्र को स्वर्ग प्राप्त हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान वामन को 'उपेन्द्र' पद प्रदान किया। वे इन्द्र के रक्षक होकर अमरावती में अधिष्ठित हुए। बलि के द्वार पर गदापाणि द्वारपाल तो बन ही चुके थे। त्रेता युग में दिग्विजय के लिये रावण ने सुतल-प्रवेश की धृष्टता की। बेचारा असुरेश्वर के दर्शन तक न कर सका। बलि के द्वारपाल ने पैर के अँगूठे से उसे फेंक दिया। वह पृथ्वी पर सौ योजन दूर लंका में आकर गिरा था।
'मुझे अपने पैरों से तीन पद भूमि चाहिये!' बलि के कुल की शूरता, उदारता आदि की प्रशंसा करके वामन ने माँगा। बलि ने बहुत आग्रह किया कि और कुछ माँगा जाय; पर वामन ने जो माँगना था, वही माँगा था।
'ये साक्षात विष्णु हैं!' आचार्य शुक्र ने सावधान किया। समझाया कि इनके छल में आने से सर्वस्व चला जायगा।
'ये कोई हों, प्रह्लाद का पौत्र देने को कहकर अस्वीकार नहीं करेगा!' बलि स्थिर रहे। आचार्य ने ऐश्वर्य-नाश का शाप दे दिया। बलि ने भूमिदान का संकल्प किया और वामन विराट हो गये। एक पद में पृथ्वी, एक में स्वर्गादि लोक तथा शरीर से समस्त नभ व्याप्त कर लिया उन्होंने। उनका वाम पद ब्रह्मलोक से ऊपर तक गया। उसके अंगुष्ठ-नख से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट गया। ब्रह्मद्रव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोया और चरणोदक के साथ उस ब्रह्मद्रव को अपने कमण्डलु में ले लिया। वही ब्रह्मद्रव गंगा जी बना।
'तीसरा पद रखने को स्थान कहाँ है?' भगवान ने बलि को नरक का भय दिखाया। संकल्प करके दान न करने पर तो नरक होगा।
'इसे मेरे मस्तक पर रख ले!' बलि ने मस्तक झुकाया। प्रभु ने वहाँ चरण रखा। बलि गरुड़ द्वारा बाँध लिये गये।
'तुम अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनोगे! तब तक सुतल में निवास करो। मैं नित्य तुम्हारे द्वार पर गदापाणि उपस्थित रहूँगा।' दयामय द्रवित हुए। प्रह्लाद के साथ बलि सब असुरों को लेकर स्वर्गाधिक ऐश्वर्यसम्पन्न सुतल लोक में पधारे। शुक्राचार्य ने भगवान के आदेश से यज्ञ पूरा किया।
महेन्द्र को स्वर्ग प्राप्त हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान वामन को 'उपेन्द्र' पद प्रदान किया। वे इन्द्र के रक्षक होकर अमरावती में अधिष्ठित हुए। बलि के द्वार पर गदापाणि द्वारपाल तो बन ही चुके थे। त्रेता युग में दिग्विजय के लिये रावण ने सुतल-प्रवेश की धृष्टता की। बेचारा असुरेश्वर के दर्शन तक न कर सका। बलि के द्वारपाल ने पैर के अँगूठे से उसे फेंक दिया। वह पृथ्वी पर सौ योजन दूर लंका में आकर गिरा था।
कुछ अन्य मत
कुछ लोगो का कहना है की जो वामन गावं के ओझा कहे जाते है वो लोग भगवन वामन के ही वंश है। जो की नाटे कद के होते है (जरुरी नहीं के सभी वामन गावं के ओझा नाटे कद के ही होंगे लेकिन नाटे कद के ओझा लोगो की मात्रा ज्यादा है ) क्योंकि भगवन वामन भी नाटे कद के ही होते है।
प्रदीप ओझा
bahut badiha
ReplyDeletebahut badiha
ReplyDeleteThanku
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